रबारी समाज के रीति - रिवाज :-
भारत में यदि जाति प्रथा नहीं होती और उनमें चली आ रही पीढ़ि दर पीढ़ि परम्पराएं और रीति-रिवाज नहीं होते तो भारतीय संस्कृति का नामों निशान कभी का मिट गया होता । जातियों के रीति-रिवाजों ने भारतीय संस्कृति को जिन्दा रखा । हर जाति के सगाई (मंगनी), विवाह, गोंणा तथा अन्य रीति-रिवाज भिन्न-भिन्न हैं । ये रीति-रिवाज और परम्पराएं ही प्रत्येक जाति की पृथक् पहिचान बनाये हए हैं । रबारी जाति की भी अपनी परम्पराएं और रीति-रिवाज है । आज की युवा पीढ़ि कुछ प्राचीन परम्पराओं और रीति रिवाजों को स्वीकार नहीं कर, वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप चलना चाहती है । यह कोई आलोचना का विषय नहीं है बल्कि ऐसा परिवर्तन समय और परिस्थितियों के अनुसार स्वाभाविक रूप से होता आया है । रबारी जाति में प्रचलित रीति-रिवाज और परम्पराओं का विस्तृत विवरण दिया जा रहा है ।
नामकरण - बच्चा जन्म लेने के बाद अपने ईस्ट देव के भोपजी अर्थात अपने ईस्ट देव के द्वारा नामकरण किया जाता है। नए प्रचलन के कारन कोई ब्राह्मण को पूछकर बच्चे का भी नामकरण किया जाता है ।
छठ पूजा - बच्चे के जन्म के छठे दिन यह पूजा की जाती है पूजा के दिन बच्चे की माँ नहा धोकर तैयार होती है और नये कपड़े पहिनती है । और बच्चे को भी नहलाया जाता है तथा उस रात्रि को बच्चे के बिस्तर के पास एक खली सफ़ेद पेपर व एक लाल पेन या कुमकुम व मोरपंख रखा जाता है, एसा मन जाता है की इस दिन विधाता माता बच्चे के कर्म (लेख) लिखती है ।
जलवा पूजन - बच्चा पैदा होने के महीने सवा महीने बाद अच्छा वार देखकर माँ जलवा पूजन करती है । जब तक जलवा पूजन नहीं होता है, तब तक स्त्री न तो पीने के पानी के मटके के पास जाती है और न रसोई में प्रवेश करती है । जलवा पूजन करने के लिए स्त्री नये कपड़े पहिन कर कलश और चरवी सिर पर रखकर चरवी में नीम का झंवरा डालकर अन्य औरतों के साथ तालाब पर जाती है । वहाँ जल की पूजा करती है । स्त्री अपना कलश और चरवी पानी में भरकर घर लाती है । जलवा पूजन के बाद ही स्त्री पानी और रसोई संबंधी कार्य करती है ।
ढूंढ - बच्चे पैदा होने के बाद पहली होली पर ढूंढ की जाती है । ढूंढ लड़का और लड़की दोनों की एक समान होती है । परन्तु लड़की को होली दहन स्थान के चारो और फेरे नहीं दिए जाते है तथा लड़के को फेरे दिए जाते है । दिन प्रात: मोहल्ले के सब लोग इकट्ठे होकर जिसके घर बच्चा पैदा हुआ है, उसके घर जाते हैं । घर के चौक में पाटे पर बच्चे का नजदीकी रिश्तेदार बच्चे को गोद में लेकर बैठता है । एक बांस लेकर दो आदमी दोनों सिरों को पकड़ कर खड़े हो जाते हैं । दूसरे सभी आदमीयों के हाथों में लकड़ीयें होती है जिनसे बांस पर हल्की चोट मारते जाते हैं और निम्न गीत गाते जाते हैं-
हरि हरि रे हरिया दे, जीमणे हाथ सबड़को ले ।
डावे हाथ चंवर डुला, जिण घर जितरी डिकरियां ।
उण घर उतरा डीकरा, गेरियों री पूरी आश । ।
अंत में बांस को हाथों में ऊपर उठाते हुए कामना करते हैं कि बच्चा बांस से भी ज्यादा लम्बा बढ़े । बच्चे का बाप ढूंढ करने वालो को एक नारियल तथा गुड़ देता है यदि प्रथम लड़के की ढूंढ है तो खुशी से शराब भी पिलाते हैं । मोहल्ले की ढूंढ पूरी हो जाती है तब सब जगह से इकट्ठे हुए नारियल और गुड़ को मोहल्ले में बांट देते हैं ।
बच्चे की बुआ ढूंढ के मौके पर ढूंढेकड़ा लाती है जिसमें बच्चे के कपड़े, जेवर तथा खिलौनें लाती है । खर्चा अपनी क्षमता के अनुसार किया जाता है मगर बच्चे का बाप अपनी बहिन जितना खर्चा करती है उससे ज्यादा ही खर्चा करता है । ढूंढेकड़ा लड़का होने पर ले जाया जाता है, लड़की पैदा होने पर नहीं ।
सगाई - इसे सगपण, संबंध, मगनी या रिश्ता तय करना भी कहते है । दूसरी जातियों की तरह रबारी जाति में भी सम गोत्र में सगाई नहीं होती है । सगाई करते वक्त मां, बाप, दादी तथा नानी की गोत्र टालते है । लड़का-लड़कियों की सगाई प्राय: छोटी उम्र में ही तय कर दी जाती है क्योंकि लड़की बड़ी होने पर योग्य लड़का मिलने कि समस्या रहती है । रिश्ते की बात प्राय: तीसरे आदमी के जरिये शुरू करवाई जाती है । संबंध करने में लड़का-लड़की की बात बहुत कम ध्यान में रखी जाती है । मां बाप ही फैसला करते है । दोनों पार्टियें रिश्ता करना चाहती है तो लड़का-लड़की को एक दूसरी पार्टी उनके घर जाकर देख लेती है । लड़का-लड़की एक-दूसरी पार्टी को पसंद है तो लड़की का बाप बेटे के बाप और उसके आदमियों को रिश्ता पक्का करने के लिए अपने घर बुलाता है । अच्छा वार देखकर सगाई की जाती है । सगाई के वक्त मोहल्ले के लोगो (बस्ती) को बुलाया जाता है । इन सबके सामने सगाई की रस्म होती है । लड़की का बाप एक थाली में नारियल, गुड़ तथा समधण के ब्लाउज का कपड़ा लाकर रख देता है । लड़के का बाप दूसरी थाली में एक खोपरा लाकर रख देता है । लड़का-लड़की का बाप आमने-सामने बैठ जाते है और थालियों की अदला-बदली करते हैं । थाली अदला-बदली में लड़के के बाप की थाली ऊपर तथा लड़की के बाप की थाली नीचे रखी जाती है । थाली अदला-बदली करने से पहले लड़की का बाप लड़के का नाम पूछता है तथा लड़के का बाप लड़की का नाम पूछता है । थाली अदला-बदली के बाद दोनों समधी आपस में एक दूसरे के मुंह में गुड़ देते हैं । मोहल्ले के पंच लड़के के बाप से सवा दो रूपया पिलाई (शराब पिलाने) का तथा एक रूपया कम्बल छपाई का लेते है । पिलाई के पैसे पंचों के पास रहते हैं । तथा एक रूपया कम्बल छपाई का बेटी की मां को देते हैं । अलग-अलग जगहों पर यह लागभाग अलग-अलग होती है । आजकल की पीढ़ि इस लागभाग में विश्वास नहीं करती है । सगाई की रस्म के आखिर में लड़की का बाप गुलाबी रंग (होली रंग) लाकर सगे संबंधियों के कपड़ों पर डालता है । रंग डालने से यह बात पक्की हो जाती है कि सगाई पक्की हो गई है । सगाई के समय या बाद में रबारी जाति में दहेज न तो मांगा जाता है और न तय किया जाता है । रबारी जाति में टीके का रिवाज बहुत कम है ।
रीत - सगाई के चार छ: महिने बाद बेटी का बाप बेटे के बाप से रीत मंगवाता है जिसमें बच्ची के जेवर तथा कपड़े, चूडि़याँ, रिबन वगैरा मंगवा लेते है । जेवर में चांदी 40 तोले से 80 तोले तक मंगवा लेते है । अधिकतर लोग बच्ची के केवल कपड़े मंगवाते है, जेवर नहीं मंगवाते है । बच्ची का बाप इस मौके पर बेटे के बाप और उसके परिवार को कपड़े करता है ।
लग्न - लड़का-लड़की विवाह योग्य हो जाते है तो बात-चीत के जरिये विवाह का अनुमानित समय तय कर लिया जाता है । पण्डित से विवाह का लग्न निकलवाया जाता है । लड़की का बाप पण्डित से लग्न लिखवाता है जिसमें एक कागज पर विवाह की तिथि तथा समय आदि लिखा जाता है । लग्न में पीले चावल, सुपारी, कुंमकुम तथा एक रूपया डालकर कुंमकुंम के छीटे डाले जाते है । चोटी वाले नारियल के साथ लग्न तथा अन्य सामग्री को मोली (कच्चे सूत) से बांध देते हैं । इस लग्न और नारियल को बेटी का बाप लड़की के भाई तथा एक कुटुम्बी आदमी के साथ बेटे के बाप के घर भेज देता है । बेटे का बाप अपने नजदीकि रिश्तेदारों या मोहल्ले वालों को इकट्ठा कर लग्न ले लेता है । लड़के का बाप लग्न लाने वाले को अपनी इच्छानुसार भेंट देकर वापस रवाना कर देता है ।
पाट बिठाना - लग्न लाने के बाद लड़का और लड़की को विवाह के ब्राहमण द्वारा लग्न में लिखे गए दिन पाट (बजोट) बिठाते हैं । इस रस्म को बजोट बहठाना भी कहते है । मारवाड़ में वान बिठाना भी कहते हैं । अच्छा वार देखकर पाट बिठाया जाता है । पाट बिठाते है तब मोहल्ले के आदमियों और औरतों को बुलाते हैं । औरतें गीत गाती हैं । लड़का या लड़की जिसकी शादी होनी होती है उसको चौक में पाट (बाजोट) रख कर उस पर बिठाते हैं, तिलक करते हैं । तिलक मां, भोजाई व चाची करती है । कटोरी में घी गुड डालकर पाट पर बैठे को खिलाते हैं । गले में फूलों या रेशम की माला पहिनाते हैं । हाथ में कटारी या तलवार दी जाती है जो फेरे होने तक उनके पास ही रहती है । सोने चांदी के जेवर भी पहिनाते हैं । दूल्हा - दुल्हन को पाट बिठाने के बाद शाम को रोजाना मोहल्ले की औरतें इकट्ठी होकर गीत गाती है । पाट बिठाने के बाद रोजाना घी पिलाते हैं तथा अच्छे से अच्छा खाना खिलाते हैं ।
विनायक पूजा - यह रश्म पाठ बिठाई के दिन ही होती है । लग्न में लिखे अनुसार पाठ बिठाने के दिन विनायक(गणेशजी) लाते हैं । दूल्हा या दुल्हन के घरवाले मोहल्ले या बस्ती की औरतों को इकट्ठा करते हैं और सभी औरतें गीत गाती हुई कुम्हार के घर विनायक लाने जाती है । दुलहा दुलहन की मां विनायक लाने जाते समय थाल में गेहूं, गुड़, कुंमकुंम, लाल कपड़ा, कच्चे सूत तथा एक शान्दी का गहना ले जाती है । गेहूं और गुड़ कुम्हार को दे देते हैं । कुम्हार मिट्टी का बना हुआ विनायक देता है । जिसके कुंमकुंम का टीका लगाकर, लाल कपड़ा ओढ़ा कर गले में कच्चे सूत की माला व शांदी का गहना डालकर थाल में बिठा कर औरतें विनायकजी के गीत गाती हुई घर लाती है । विनायक के साथ एक बड़वेला भी लाते हैं । विनायक की रस्म लड़का या लड़की की शादी में एक समान है । विनायक लाकर घर में गेहूं की ढेरी पर बिठा देते हैं । तथा घर के दरवाजे के दाए तरफ गोबर व ध्रोब चिपकाते है तथा उस स्थान पर मेहन्दी तथा कुंमकुंम की सात-सात टिकियाँ अंकित कर देते हैं । विनायक लाने के बाद रोजाना रात को गीत गाना शुरू कर दिया जाता है । दूल्हा तथा दुल्हन के रोजाना मेहन्दी लगाना भी शुरू कर दिया जाता है । विनायक लाने के बाद रोजाना शाम को पीठी (उबटन) करना भी शुरू कर देते हैं ।
पीठी (उबटन) - जौ का आटा तथा हल्दी मिलाकर पीठी बनाई जाती है । विनायक लाने के बाद हर रोज शाम को दूल्हा - दुल्हन के पीठी की जाती है । पीठी करते वक्त घर के कमरे में पाट रखकर दूल्हा या दुल्हन को बिठाया जाता है । पीठी करने से पहले तेल चढ़ाया जाता है । तेल हम उम्र का चढ़ाता है । दुलहन के तेल कुंवारी लड़की तथा दुलहे के कुंवारा लड़का चढ़ाता है । तेल चढ़ाने वाला अपने दोनों हाथों के अंगूठों को तेल में डूवोकर पांवों के नाखूनों से शुरू करके शरीर के जोड़ों की जगह- टखना, घुटने, कमर, कन्धों तथा सिर पर अंगूठे रखते हुए चढ़ाता है । विनायक लाने वाले दिन एक बार, दूसरे दिन दो बार, तीसरे दिन तीन बार, चौथे दिन चार बार तथा पांचवें दिन पांच बार तेल चढ़ाया जाता है । जितनी बार तेल चढ़ाया जाता है फेरों वाले दिन उतनी ही बार घी से उलटा उतारा जाता है । घी से उलटा उतारने में सिर से शुरू करके कन्धे, कमर, घुटनों, टखनों से पांवों के नाखूनों पर उतारा जाता है । तेल चढ़ाने के बाद ही पीठी शुरू की जाती है । पीठी पूरे शरीर पर की जाती है । दुलहन के पीठी उसकी सहेलियाँ तथा दुलहे के अपने साथी पीठी करते हैं । पीठी करते वक्त औरतें गीत गाती रहती है । पीठी से शरीर सुन्दर और कोमल बनता है ।
बंदौला (वोनोला) - पाट बिठाने वाले दिन मोहल्ले के सब लोग विवाह वाले के घर बुलाने पर इकट्ठे होते हैं । जहां बड़े मोहल्ले होते हैं वहाँ बस्ती होती है । एक मोहल्ले में कई बस्ती हो सकती हैं । पाट बिठाने वाले रोज दुलहा हो या दुलहन का बाप मोहल्ले या अपने बस्ती के घरों में गुड़ बांटता है । दुल्हे के बाप के सगे - संबंदी पाट बिठाने से लेकर महारात तक एक - एक करके बन्दौले देते है। बन्दौले में दूल्हा या दुल्हन को एक समय का खाना खिलाने से पहले घी जितना पी सकता हो पीलाते हैं । खाने में विशेष भौजन बनाया जाता है । बंदौला खाने जाते हैं तब दुलहा या दुलहन अपने साथ चार छ: आदमी तक ले जाते हैं । पूरे परिवार को खाने पर बुलाते हैं तो इसे सगरी न्यौता कहते हैं ।
बेहमाट - यदि लड़की की शादी है तो फैरों के दिन औरतें गीत गाती हुई कुम्हार के घर जाती है और बेहमाट लाती है । पांच मटकों का बेहमाट लाती है । कम ज्यादा माटों का भी लाया जा सकता है । एक जोड़ी बेहमाट लाया जाता है जो दरवाजे के दोनों तरफ रखे जाते हैं । बेहमाट के साथ बड़बेला भी लाया जाता है जो बेहमाट पर लाल और सफेद रंग की लकीरें डालकर सुन्दर बनाया जाता है । बेहमाट कुम्हार को पूरी कीमत देकर लाया जाता है । पहले कुम्हार को बेहमाट की कीमत नहीं दी जाती थी और कुम्हार का नेक होता था जिसमें शादी के बाद उसे दलिया, गुड़, घी तथा कपड़े दिये जाते थे । मगर अब यह प्रथा समाप्त हो गई है ।
तोरण - यह भी लकड़ी का बना हुआ सुथार के घर से कीमत देकर लाते हैं । आज कल तोरण कई तरह के बनाये जाते हैं । तोरण में पांच चिड़ियें बनाई हुई होती है । दुलहा जब शादी करने आता है तब तोरण को ऊंट पर चढ़कर तलवार तथा एक लकड़ी से इसे वांदता है । तोरण पर तलवार से दुलहा जब हल्की चोट मारता है तो इस रस्म को तोरण वांदना कहते हैं । तोरण घर के दरवाजे के ठीक ऊपर लगाया जाता है । ऊंट पर बेठ कर तोरण वांदने का रिवाज एक मात्र रबारी समाज में ही होता है।
बरात - दुलहे का बाप बरात में चलने का व्यक्तिगत रूप से निवेदन करता है । फरे के रोज बरात चढ़ती है, मगर दूर का मामला है तो पहले भी बरात को रवाना होना पड़ता है । मेहमानों तथा बरात में चलने वालों को बरात रवाना होने से पहले दुलहे का बाप अपने घर खाना खिलाता है । हलवा, लापसी या विशेष भोजन खिलाया जाता है । बारात चढ़ने से पहले औरतें गीत गाती हैं । फिर दुल्हे को पीठी करते है, पीठी करने के बाद स्नान करवाते हैं । स्नान सबसे पहले मां करवाती है । फिर दुलहे को शादी के कपड़े पहिनाए जाते हैं । दुलहे के शादी के कपड़ों को वरी कहते हैं । पहले यह रिवाज था कि वरी लाने के लिए दुलहे का बाप अपने नजदीकि एक दो बुजुर्गों को लेकर बाजार या पास के शहर में जाकर खरीदते थे । दूल्हा अपने समाज के कपडे पहनता है तथा उसके ऊपर एक विशेष तार वाला कमीज पहनता है । दुल्हे के सिर पर पगड़ी बांधी जाती है पगड़ी पर मोड़ बाँदा जाता है कई स्थानों पर दुल्हे कई पगड़ी में फैंसी लाइट भी लगाते है । दूल्हा कपड़े पहिन कर तैयार हो जाता है तब पहले देवताओं को उनके स्थानों पर जाकर नारियल चढ़ाता है । फिर बारात कई चढाई कराई जाती है बारात चढाई के वक्त दुल्ह्र के हाथ में नालियर रखा जाता है जिसमे वहा उपस्थित लोग उसमे इसा अनुसार पैसे डालते है तथा दूल्हा गाडी, बस, ट्रेक्टर आदि में बैठने पर नारियल वापिस ले लेते है । बारात चढ़ती है तब औरतें गीत गाती हैं और दुलहे को घर से बाहर लाती है । ढोल बजता है । दुलहा गाडी, बस, ट्रेक्टर में बैठन के लिए चढ़ता है तो पांव के नीचे नारियल रख कर चढ़ता है । बारात चढ़ते वक्त यह दृष्य ऐसा होता है जैसे कोई फौज हमला करने के लिए चढ़ाई कर रही हो । बारात रवाना होने पश्चात् गंतव्य स्थान पहुचने तक बिच में जो मंदिर आते है उनको नालियर चड़ा कर जाती है । बारात दुल्हन के गाँव पहुसने के बाद उसके घर के पास खड़ी हो जाती है तथा दुल्हने वालो कई तरफ से दुल्हे के लिए एक चारपाई (मोचा) लाकर रखी जाती है । उसके बाद बारात के स्वागत करने की तैयार कर दी जाती है । दुलहन का बाप मोहल्ले या बस्ती वालो को इकट्ठा करता है । दुलहन पक्ष के लोग जिनकों मांडीया कहते है बारात का स्वागत करने के लिए रवाना होते हैं । आगे-आगे ढ़ोल बजता चलता है । पीछे औरतें गीत गाती चलती है । दुलहन पक्ष के लोग बारात के सामने पहुचते हैं । साँस हाथ में थाली लेकर जाती है जिसमे गुड, कुमकुम, चावल, घी आदि होता है तथा साथ एक साली होती है जिसके सिर पर कलश (सोमेला) होता है । सांस दुल्हे के ललाट पर टीका लगाती है । दुलहे के मुंह में गुड़ देती है और थाली से आरती उतारती है । सास थाली दुल्हे के सामने करती है । दूल्हा थाल में इसा से पैसे डालता है । फिर साली अपने साथ लाया कलश आगे करती है दूल्हा उस कलस को छु कर वान्द्ता है तथा उसमे भी पैसे डालता है । इस समय औरतें अपने सगों और बारातियों को गीतों के जरिये मीठी गालियाँ सुनाती हैं । उसके बाद दूल्हा उंट पर बेठ कर तोरण पर जाता है । उसके बाद दुलहा तलवार से तोरण वांदता है । औरतें गीत गाती हैं । तोरण वांदने की रस्म पूरी होने के बाद औरतें घर में चली जाती है और दूल्हा वापस अपनी बारात में जाकर बैठ जाता है । इसके बाद बारात को ढ़ोल बजाते हुए दुल्हन वालो के आंगन में ले जाते है । फिर फेरे चालू होते है ।
पडला - दुल्हन के लिए लाए जाने वाले कपड़ो व श्रृगार को पडले कहते है । फेरों के वक्त दुलहे के घर से लाये कपड़ों को पहिन कर ही दुलहन फेरे लेती है । पडले में दुलहन के कपड़े - लहंगा, ब्लाउज, ओरना (साड़ी) एवम् श्रृंगार का सामान - कांच, कंगा, टीकी, नेल-पोलिस, लिपस्टिक, काजल की डिब्बी, रिबन वगैरा एक थाल में भरे पतासे और खारकों के उपर रखे जाते हैं । दुलहन के बांधने का मोड़ तथा पावभर मूंग भी रखे जाते हैं । पडला दुलहन के घर पहुँचते ही दुलहन को तैयार करते हैं । पीठी करके स्नान करवाया जाता है । दुलहन पडले में लाये कपड़े पहिन कर श्रृंगार करती है । तैयार होकर दुलहन विनायकजी के सामने बैठ जाती है । मोड़ बांध दिया जाता है ।
फेरे - सबसे पहले एक बारात पक्ष व एक मांडीया पक्ष का आदमी आता है और दुल्हन जिस कमरे में होती है उसके ऊपर दोनों आदमी तलवार व म्यान रखते है तथा उनके निचे होकर दुल्हन को बार लाया जाता है । दुल्हन को दुल्हे के बायीं तरफ बैठाया जाता है । दुल्हे की बहिन पल्ला छेड़ी बांध देते हैं । पल्ला छेड़ी एक लम्बा सफेद कपड़ा होता है जो दुल्हे के घर से लाया जाता है । इस कपडे़ के दोनों सिरों को रंग से गुलाबी रंगा जाता है । चंवरी में हवन कुण्ड बना हुआ होता है । हवन कुण्ड के चारों कोनों में गुलाबी रंग की चार खुंटियाँ लगी हुई होती है और उनके चारों तरफ मोली (कच्चा सूत) लपेटी होती है । ब्राह्मण हवन करता है । विवाह में पहले ब्राहमण दुल्हन के दायीं हाथ की हथेली में मेंहन्दी लगाकर हाथ पीले करता है फिर हाथ पीले करने के बाद ब्राह्मण हथलेवा जुड़वाता है । हथलेवा में दूल्हा -दुल्हन के मेंहन्दी लगे दायें हाथों की हथेलियों को एक-दूसरे के उपर रखकर रूमाल या कपड़े से बांध देता है । हथलेवा में दुलहे का हाथ उपर तथा दुलहन का हाथ नीचे रखा जाता हैं । फिर दुलहा दुलहन को खड़ा कर ब्राह्मण फेरे दिलवाता है । औरतें फेरों के गीत गाती है । फेरे हवन कुण्ड के चारों तरफ दिलवाये जाते हैं । फेरों में पहले दुल्हन आगे रहकर तीन फेरे लेती है । दुल्हन के तीन फेरे पूरे होते ही दुल्हे को आगे करके एक फेरा और दिलवाया जाता हैं । इस तरह रबारी में चार फेरों से अग्नि की साक्षी में विवाह होता है । फेरे खत्म होते ही दूल्हा-दुल्हन को वापस चंवरी में बिठा दिया जाता है और ब्राह्मण हथलेवा खोल देता है । दुल्हे का बाप श्रद्धानुसार ब्राह्मण को हथलेवा खोलने का दान देता है । उसके बाद में एक थाली भोजन (लापसी) परोस कर लाते हैं । थाली दुल्हे - दुल्हन के सामने राखी जाती है । रस्म के अनुसार दूल्हा - दुल्हन एक दुसरे को अप्रित्क्ष रूप से भोजन करवाते है । इसके बाद दूल्हा - दुल्हन खड़े हो जाते है और दुल्हे - दुल्हन के अपने - अपने मामा दोनों को अपने गोद में उठा लेते है और जानवास (डेरे) पर ले जाते है । दुलहन का बाप बारत वालों को उनके ठहरने का स्थान बता देता है जिसे जनवासा या डेरा कहते हैं । बारात दुलहन के घर पहुँचते ही बारातियों का खाना खिला दिया जाता है । खाना खाकर बाराती जनवासा चले जाते हैं । वहाँ उनके ठहरने की व्यवस्था होती है । उसके बाद दुल्हन पक्ष वाले डेरे पर जाकर दुल्हन को लेकर आते है तथा बारात पक्ष के दुल्हन की खोड भरते है ।
नेत (न्यौत) - लड़की वालो के वहा बारात जाने व लड़के वाले के वहा बारात वापिस आने पर यह होता है । इसको विवाह का अम्ल भी कहते है Iअपने भाई, रितेदार या विशेष तालुकात वाले लोग नेत डालते हैं । हर घर में नेत की बही रहती है जिसमें शादी की तिथि वगैरा लिखी जाती है । बही में लिखना शुरू करने से पहले कुंमकुंम का स्वास्तिक (साखिया) बनाकर कुंमकुंम के छीटे डाले जाते हैं । स्वास्तिक के ऊपर गणेश जी का नाम जरूर लिखते हैं । नेत लेना (अम्ल) शुरू करने से पहले नाथ, ढाडी या किसी आदमी को भेजकर मोहल्ले वालो को सूचित करवा दिया जाता है । जब सब लोग इकट्ठे हो जाते हैं तब नेत लेना शुरू किया जाता है । औरतें गीत गाती रहती है । नेत लेने में सबसे पहले भाइयों तथा बाद में रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों का लिया जाता है । नेत के बाद पंच लोग पैसे की गिनती करते हैं ।
गोणा (ओंणा) - इसे ओंणा भी कहते हैं । विवाह के एक साल बाद गोणा किया जाता है । लड़का लड़की बड़ी हो तो साल भर से भी पहले गोणा कर दिया जाता है । गोणा में लड़की के ससुराल वाले लड़की के घर अपने भाइयो व कुटुम्बियो के साथ लड़की को लेने जाते है । गोणा लेने शाम को ही जाते है। लड़के
जांमणा (मुर्हत पर लाना) - लड़की का बाप चाहे कितना ही गरीब हो मगर अपनी लड़की की पहली डीलिवरी अपने घर पर ही लाकर करवाता है । इसका सारा खर्चा लड़की का बाप ही उठाता है । पहला बच्चा होने के बाद लड़की के ससुराल वाले बहु को लेने ससुराल आता है तब ससुर अपने संमधी वगैरा को कपड़े करता है । जांमणा में लड़की का बाप अपनी लड़की को कपड़े तथा बच्चे को पालना तथा छोटा मोटा सोने-चांदी का जेवर पहिनाता है । यहाँ यह बात विशेष रूप से उल्लेखनिय है कि पहला बच्चा होने के बाद लड़की अपने ससुराल आती है तब अपनी सास, ननद, जेठाणियों तथा देराणियों के लिए सूंठ के लड्डू जो स्वयं ने जापे में खाये हैं उसी में से बचाकर लाकर बांटती है ।नेत (न्यौत) - लड़की वालो के वहा बारात जाने व लड़के वाले के वहा बारात वापिस आने पर यह होता है । इसको विवाह का अम्ल भी कहते है Iअपने भाई, रितेदार या विशेष तालुकात वाले लोग नेत डालते हैं । हर घर में नेत की बही रहती है जिसमें शादी की तिथि वगैरा लिखी जाती है । बही में लिखना शुरू करने से पहले कुंमकुंम का स्वास्तिक (साखिया) बनाकर कुंमकुंम के छीटे डाले जाते हैं । स्वास्तिक के ऊपर गणेश जी का नाम जरूर लिखते हैं । नेत लेना (अम्ल) शुरू करने से पहले नाथ, ढाडी या किसी आदमी को भेजकर मोहल्ले वालो को सूचित करवा दिया जाता है । जब सब लोग इकट्ठे हो जाते हैं तब नेत लेना शुरू किया जाता है । औरतें गीत गाती रहती है । नेत लेने में सबसे पहले भाइयों तथा बाद में रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों का लिया जाता है । नेत के बाद पंच लोग पैसे की गिनती करते हैं ।
मायरा - इस रस्म को मामेरा भी कहते हैं । भाई अपनी बहिन की लड़की या लड़के (भांजी) के विवाह के मोके पर मायरा लाता है । चावल आने के बाद मामा अपनी भांजी या भांजा के विवाह के रोज अपने नजदीक रिश्तेदारों के साथ वहाँ पहुँच जाता है । मायरा में औरते जरूर आती है । औरतें मायरा के गीत गाती हुई जाती है । ये वहाँ पहुँच कर बहिन के घर के बहार जाकर बैठ जाते हैं । बहिन को सूचना मिलने पर मोहल्ले के आदमियों और औरतों के साथ ढोल बजाते हुए, गीत गाते हुए स्वागत के लिए जाती है । तथा बहिन एक थाल में कुंमकुंम, चावल, गुड़ ले जाती है । बहिन अपने भाई तथा उसके साथ आने वालों के कुंमकुंम से तिलक करती है । तथा आरती उतरती है । मायरा में आने वालों को बहिन की तरफ से प्रत्येक को एक एक चोटी वाला नारियल दिया जाता है । इस मौके पर भाई अपनी बहिन तथा बहनोई को सामर्थ्य के अनुसार कपड़े और पैसे देता है । बहिन अपनी माँ तथा अन्य औरतों के गले मिलती है । फिर ढोल बजाते हुए मायरा वालों को बहिन अपने घर लाती है । बहिन के घर सबको बिठा कर भाई ओडोमनी करता तथा एक थाली में पैसे तथा जेवर रखता है । पैसों व जेवर सहित थाल बहिन के परिवार वालों को सोंप दिया जाता है । बहिन के सास, ससुर तथा उसके परिवार को कपड़े ओडाये जाते हैं ।
गंगा प्रसादी (मेल) - इसे मृत्यु भोज भी कहते हैं । मरने के बाद ओलाद अपने पूर्वजों की अस्थियें लेकर हरिद्वार या पुष्कर जाकर प्रवाहित करता है । तथा वापस आते समय गंगा जल की झारी लाता है । मुंडन करवा कर आते हैं । गले में गंगा जी या पुष्कर की माला पहिन कर आता है तथा हाथ में बेत की लाठी लाता है । इस दिन मृत्यु भोजन होता है जिसमे उस नयात के सभी पन्च लोग आते है जैसे बारह गाँव न्यात है तो बारह गाँव के पंच आते है और गाँव के लोग व् रिश्तेदार आते है भोजन करते है I
मृत्यु संसकार - रबारियों में भी मृत्यु संसकार अन्य हिन्दु जातियों की तरह ही होता है । रबारियों में शव को जलाने की प्रथा है ।